पेरेंटिंग का अर्थ , शुरुआत और इसकी जरुरत कब और क्यों
“ आपके बच्चे वही बनेंगे जो आप हैं। इसलिए वो बने जो आप उन्हें बनाना चाहते हैं।”
पेरेंटिंग का अर्थ :-
“ बच्चे का शारीरिक , मानसिक , सामाजिक विकास करना ही पेरेंटिंग कहलाता है। परवरिश हम उसकी करते हैं जो पूरी तरह हम पर निर्भर होता है। ”
पेरेंटिंग की शुरुआत गर्भावस्था से होती है और हमारे जीवन के अंतिम पड़ाव तक चलती है।
हमारे जीवन में खुशहाली हमारे बच्चे नहीं , बल्कि हमारी दी हुई परवरिश लाती है। अगर हम इस बात को समझ जाये तो जीवन की हर मुश्किल घडी आसान हो जाएगी।
पेरेंटिंग की शुरुआत :-
पेरेंटिंग की शुरुआत तभी से हो जाती हैं , जब से हम बच्चे को जीवन में लाने का विचार करते है। जब वह अंश माता के गर्भ में आता हैं। तभी से जिम्मेदारियां शुरू हो जाती है।
मेरा एक सवाल है। क्या हम इतने शक्तिवान हैं, की एक जीवन इस दुनिया में ला सकते है? इसका उत्तर हैं नहीं। इसी से एक और सवाल जुड़ा है। क्या कोई भी माता पिता अपने बच्चे को अमर कर सकते है। इसका उत्तर 100 प्रतिशत नहीं है।
जब जीवन मृत्यु हमारे हाथ में नहीं हैं। तो हम खुद को बच्चे का जीवनदाता कैसे मान सकते है। हम केवल अच्छी परवरिश दे सकते हैं जिसके लिए प्रकृति ने हमें चुना है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी ये कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में निःसंतानता की समस्या बढ़ रही है। इसे हम कुछ आंकड़ों से समझते है।
इंडियन सोसाइटी ऑफ़ एसोसिएशन के अनुसार हर 6 में से 1 कपल इससे जूझ रहा है। भारत में लगभग 15 से 20 मिलियन (10%-14%) और विश्व में 60 से 80 मिलियन (8%-10%) निःसंतानता की समस्या झेल रहे है।
ये बहुत ही चिंता का विषय है। इन आंकड़ों के अनुसार तो हमें संतोष होना चाहिए की प्रकृति और विज्ञान ने हमें माता पिता बनने का सौभाग्य दिया है। प्रकृति ने हमें सबसे खूबसूरत पल जीने के लिए दिया है।
सबसे पहले हमें समझना है कि परवरिश एक कला है। जो जीवन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। जिस दिन हम ये समझ गए वहीं से हमें किसी कंसल्टेशन और कॉउंसलिंग की जरुरत नहीं पड़ेगी।
गर्भस्थ शिशु के प्रति हमारी बहुत सी जिम्मेदारी होती है। जिसे हम सच में पूरी तरह नहीं निभाते हैं। ये हम पर निर्भर है कि हमें किसका बीज बोना है। “ हम फल का बीज बोयेंगे तो फल ही पाएंगे। कांटे का बीज बोयेंगे तो कांटे ही पाएंगे। ”
ये हमें निश्चय करना है कि हम क्या चाहते हैं। अभिमन्यु की कथा तो हम सभी जानते है। विज्ञान ने भी मान लिया है कि गर्भ में पल रहे शिशु पर माँ और उसके आसपास का वातावरण ही उसका व्यवहार तय करता है।
जब हमें अपने व्यवहार को अच्छा रखना होता है। तब हम वो करते नहीं हैं। फिर अपनी समस्याओं को लेकर परेशान होते हैं। बच्चा जिद्दी है ,सुनता नहीं है , बदतमीजी करता है, या उसका स्वास्थ्य सही नहीं है , शारीरिक रूप से परेशानी है, डिप्रेशन में है आदि।
हमें समझना है कि पेरेंटिंग कि शुरुआत गर्भावस्था के विचार के साथ ही शुरू हो जाती है। कुछ बिंदु जिन पर हमें विचार करना चाहिए:-
⇒ गर्भधारण (pregnancy) कब और किस समय करें ।
⇒ गर्भावस्था में क्या खाएं कैसे रहें।
⇒ गर्भावस्था में क्या करें क्या न करें।
⇒ बच्चे पर होने वाला खर्चा। आदि
बच्चे को लेकर हम हजारों सपने बुनने लगते है। पर क्या हम अपनी परवरिश को लेकर सपने देखते है। गर्भस्थ शिशु के प्रति हमारी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं। जिसे हम सच में पूरी तरह नहीं निभाते हैं।
माँ का खानपान, व्यवहार, मानसिक स्थिति, आसपास का वातावरण, सोच सभी बच्चे का भविष्य तय करते है। ना केवल माँ बल्कि पिता कि भी उतनी ही जिम्मेदारी बनती है। ये वो समय नहीं हैं जब अकेले माँ ही सब देख लेती थी।
आज के समय में अगर माँ या पिता कोई भी लापरवाही करते हैं। तो उन्हें अपने सुखी पारिवारिक जीवन को भूल ही जाना चाहिए। पेरेंटिंग कि जरुरत कब होती हैं :-
⇒ जब हम बच्चे को जीवन में लाने का विचार करते है।
⇒ जब हम बच्चे का शारीरिक रूप से पोषण करते है। वो पूरी तरह हम पर ही निर्भर होता है।
⇒ जब बच्चा पूरी तरह से हमारे अधिकार में होता हैं। हमारे निर्देशन में होता है।
⇒ जब हम बच्चे के सहायक के रूप में होते हैं। उसके मित्र बनते हैं।
⇒ जब वो आत्मनिर्भर बनता है।
⇒ जब हम दादा – दादी या नाना – नानी के रूप में नयी शुरुआत करते हैं।
पेरेंटिंग कि जरुरत क्यों हैं ?
पेरेंटिंग त्याग का नाम है। जिसमें हमें अपने जीवन के सभी सुखों को छोड़ना पड़ता है। एक बच्चा न केवल माता पिता बल्कि पूरे समाज , राष्ट्र और विश्व की धरोहर होता है।
एक तरफ स्वामी विवेकानंद , महात्मा बुद्ध , अल्बर्ट आइंस्टीन , गैलीलियो , अब्दुल कलम जैसे महान व्यक्ति हुए। वहीं दूसरी तरफ इतिहास में ऐसे बहुत नाम हैं , जो कि समाज व पूरे विश्व के लिए परेशानी का सबब बने।
हमें माता पिता के रूप में अपनी संतान को योग्य बनाना है। यही हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। पहले संयुक्त परिवार थे। जहाँ दादा दादी, चाचा , ताऊ , बुआ बहुत रिश्ते थे। कब बच्चों को अच्छी परवरिश मिल जाती। इसका माँ बाप को पता ही नहीं चलता था। हर व्यक्ति कोई न कोई अच्छी बात बच्चे को सीखा ही देता था।
आज एकांकी परिवार है। चाहे वो मज़बूरी वश हो या परिस्थितिवश। जिस वजह से माता पिता को कई बातों कि जानकारी नहीं होती है। माता पिता दोनों ही काम करते हैं। महिला ग्रहणी हैं तब भी उसे गर्भावस्था कि पूरी जानकारी नहीं होतीं।
आजकल माता पिता बच्चे कि परवरिश को लेकर बहुत परेशान रहते है। क्यों कि उनके पास अच्छा मार्गदर्शन नहीं होता है। गर्भावस्था से ही माँ पिता किसी न किसी समस्या का सामना करते हैं। ये सिलसिला उनकी वृद्धावस्था तक जारी रहता है।
आजकल पारिवारिक खुशहाली जैसे हमसे दूर हो रही है। बच्चे और माता पिता के बीच में संवाद ही जीवन को सुखी रखता है। हम अपने जीवन में सब कुछ पाकर भी अंत में अकेला महसूस करते है। इसका क्या कारण हैं हमने कभी सोचा ही नहीं।
एक परिवार जो सुखी बड़ी आसानी से बन सकता है। वो दौड़ती भागती दुनिया में खोता जा रहा है। एक खुशहाल पारिवारिक जीवन के लिए अच्छी परवरिश ही पहली और आखिरी सीढ़ी है। सुखी जीवन का सबसे बड़ा मंत्र अच्छे पालन पोषण में ही छुपा है।
माता पिता का शारीरक, मानसिक और आर्थिक रूप से मजबूत होना बहुत जरुरी है। मन और शरीर एक ही सिक्के के दो पहलू है। गर्भावस्था से ही पति पत्नी को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और प्रसन्न रहना चाहिए।
आजकल कि आम समस्या रोग प्रतिरोधक क्षमता की होती है। बच्चे से लेकर बड़े सभी की कमजोर इम्युनिटी हो रही है। अब नए नए वायरस का भी जन्म हो रहा है। आज हमारा पहला कर्तव्य बच्चे को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाना है।
सभी चाहते हैं कि उनका बच्चा स्वस्थ, बुद्धिमान, आज्ञाकारी और संस्कारी हो। जब इतना कुछ हम एक बालक से चाहते हैं। तो हमें कितना कुछ पहले उनके लिए करना होगा।
आज के समय में अच्छी परवरिश की सबसे ज्यादा जरुरत है। अब तय हमें करना है की हम सुखी जीवन चाहते हैं या संघर्ष चाहते हैं।
मानव विकास या बच्चे के विकास की अवस्थाएँ :-
- गर्भकालीन या गर्भावस्था ( गर्भाधान से शिशु के जन्म तक )
- शिशुकाल या शैशवास्था ( जन्म से 3 वर्ष तक )
- बाल्यकालवस्था ( 3 से 12 वर्ष तक )
→ पूर्व बालावस्था ( 4 से 6 वर्ष )
→ उत्तर बालावस्था ( 7 से 12 वर्ष तक )
4. किशोरावस्था ( 13 से 19 वर्ष )
5. युवावस्था (20 से 25 वर्ष )
6. प्रौढ़ावस्था ( 26 से 60 वर्ष )
7. वृद्धावस्था (60 वर्ष से जीवन के अंतिम पड़ाव तक )
सभी पड़ावों पर अच्छी पेरेंटिंग की जरुरत होती है। हमारा ये ब्लॉग बच्चे की इन सभी अवस्थाओं पर पूरे शोध , विश्वसनीयता और प्रमाण के साथ आपका साथी बनकर रहेगा।
निष्कर्ष :-
maapaparenting ब्लॉग माता की गर्भावस्था से लेकर बच्चे की युवावस्था तक सभी प्रकार की परेशानियों के समाधान में आपका मित्र बनकर रहेगा। हमारा एक मात्र उद्देश्य एक सुखी पारिवारिक जीवन जीने की कला को समझाना है। यहाँ आप अपने पेरेंटिंग ( परवरिश ) से सम्बंधित सभी सवालों के जवाब पा सकते हैं।
अंत में कुछ पंक्तियों की साथ :-
“ हम अपने बच्चों को वो सब तो नहीं दे सकते जो वो चाहते हैं। लेकिन हम उन्हें अपना प्यार , समय और संस्कार दे सकते हैं । जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा जरुरत है। हम इन्हे बाजार से खरीद नहीं सकते है। ”
अपना अमूल्य समय देने के लिए धन्यवाद