गर्भावस्था में गर्भसंस्कार विधि और उसकी आवश्यकता

गर्भसंस्कार क्या है , इसकी विधि और आवश्यकता क्यों है

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  गर्भावस्था में  गर्भसंस्कार क्या हैं –

 

गर्भावस्था में गर्भसंस्कार विधि और उसकी आवश्यकता क्यों है ? उसके लिए हमें गर्भसंस्कार क्या है यह जानना जरुरी है।

गर्भावस्था  को हम अगर गर्भ संस्कार से जोड़ें तो गलत नहीं होगा । कई बार हमारे मन में सवाल उठता है। गर्भ संस्कार क्या है?  इसकी जरुरत क्या है ? इसका सीधा सरल उत्तर है । जब हम अपने बच्चे का शारीरिक , मानसिक , बौद्धिक  विकास का बीज गर्भ में ही बो देते है। वही गर्भ संस्कार कहलाता है। गर्भावस्था में गर्भसंस्कार सबसे  पहला और मुख्य कार्य है।  

 

जैसे आटे को गूंधकर हम चिकना करते है। फिर उसकी लोई बनाकर चपाती के रूप में गोल आकार देते है। अंत में उसे  तवे पर सेकते है। तभी जाकर हमें वो गोल चपाती के रूप में मिलती है। बिलकुल ऐसे ही गर्भ में पल रहे शिशु को सही आकार में ढालने का काम गर्भसंस्कार में किया जाता है। 

 

गर्भाधान में गर्भसंस्कार की आवश्यकता क्यों :-

 

गर्भसंस्कार में गर्भधारण से लेकर प्रसव और शिशु की देखभाल तक कि सभी समस्याओं और उनका समाधान निकाला जाता है।  

 

विज्ञान भी इस बात को मानता है कि गर्भ में शिशु माता पिता कि आवाज पहचानता है। वो विशेष स्वाद पहचानता है। लगातार कोई एक संगीत या प्रतिक्रिया को पहचानने लगता है। माँ जब रोती है तो बच्चा भी वह दुःख महसूस करता है। माँ अगर हंसती  है तो शिशु भी वो ख़ुशी अनुभव करता है।

 

अगर हम अपने शिशु का सम्पूर्ण विकास चाहते हैं तो हमें गर्भसंस्कार को समझना होगा। आज के समय में गर्भसंस्कार की  ज्यादा जरुरत है।  आजकल  बच्चों में जिद्दीपन , चिड़चिड़ापन , डिप्रेशन , गुस्सा , बड़ों की बात ना सुनना आदि बढ़ रहा है।

हम बस पश्चिमी देशों को अंधाधुन्द कॉपी कर रहे हैं। हमें पश्चिमी देशों की अच्छाइयाँ ग्रहण करनी हैं ना की उनकी कमियाँ । हमें अपने जीवन में एक संतुलन बनाकर चलना है।

 

कहते हैं ना कि ” अति सर्वत्र वर्जयते ” मतलब किसी भी काम की अति नहीं होनी चाहिए । जो हमारी संस्कृति कि खूबी हैं और पश्चिमी सभ्यता की अच्छाई हैं , हमें उन दोनों में  संतुलन बनाये रखना है।

 

आज गर्भसंस्कार कि ज्यादा जरुरत है। क्यों कि पहले के समय में  बड़े परिवार हुआ करते थे। जिसमे बड़े बूढ़े गर्भवती को क्या खाना हैं, क्या करना है , क्या नहीं करना है , कौनसा काम करना है ,  क्या पढ़ना है , कैसे रहना है , सब चलते फिरते बता देते थे।

 

आज हम एकाकी  परिवार में रहते हैं । महिलाओं को गर्भावस्था के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। आज उन बड़ों कि जगह किताबों और ब्लॉग्स ने ले ली हैं ।

 

गर्भवती स्त्री की मानसिक स्थति सीधे ही गर्भ में पल रहे शिशु पर प्रभाव डालती है। पहले की महिलाओं के पास तनाव के लिए समय ही नहीं था। आज से 15-20 साल पहले कितने बच्चे डिप्रेशन का शिकार थे ? हम अगर अपने बड़ों की बात करें तो सबसे बड़ा जीता जागता उदाहरण हमारे बड़े  हैं । उन लोगों ने हमसे ज्यादा संघर्ष किया है  । परन्तु  वो हमसे ज्यादा मानसिक रूप से मजबूत हैं।

 

इसका कारण सीधा है। आज अधिकतर महिलाएं काम करती हैं। 8-10 घंटे तक । उन पर काम का परिवार का और शारीरिक थकावट का बोझ होता है। जो मानसिक रूप से उन्हें चिड़चिड़ा और कमजोर बना देता है। पति पत्नी  के पास एक दूसरे के लिए समय नहीं है।

 

आज हमें गर्भवती के मानसिक स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है। क्योंकि उसी पर  बच्चे का व्यवहार और विचार निर्भर करता है। अगर माँ ही चिड़चिड़ी है, दुखी है, गुस्सा करती है, झूठ बोलती है, रोती रहती है तो बच्चे में ये आदतें अपने आप ही आ जाएँगी।

 

जब हम बीज बोते हैं तो उसमे अच्छी किस्म की खाद डालते है। समय पर पानी डालते है। आंधी , तूफ़ान , तेज धूप से उसका ख्याल रखते हैं। तभी मीठे फल हमें मिलते हैं।

 

तो बस यही हमें पेरेंटिंग में करना है। गर्भस्थ शिशु के गर्भसंस्कार से हमारा ये कर्तव्य शुरू होता है।

 

  गर्भावस्था में गर्भधारण संस्कार विधि :-

गर्भसंस्कार में शिशु का अच्छा स्वास्थ्य , अच्छी बौद्धिक क्षमता के साथ स्वस्थ गर्भ और शुद्ध बीज ( शुक्राणु ) को मंत्र औषधि , हवन और देवताओं के पूजन द्वारा किया जाता है।

 

एक अच्छी , स्वस्थ और सुन्दर संतान के लिए गर्भाधान में चार आवश्यक पदार्थ होना चाहिए :-

 

  1. महिला का स्वस्थ मासिक स्त्राव ( ऋतुकाल ) का होना।
  2. स्वस्थ गर्भाशय होना।
  3. आहार रस  स्त्री शरीर में पर्याप्त होना चाहिए।
  4. पुरुष का शुद्ध व पुष्ट वीर्य होना चाहिए।

 

इन चारों में से अगर एक भी कमजोर हुआ तो गर्भ नहीं होगा। गर्भ हुआ तो गर्भस्त्राव हो जायेगा। और बच्च जन्म लेता है तो कमजोर या विकृत हो सकता है।  साथ ही जितना पति पत्नी में मानसिक सुख शांति होगी  उतनी ही शांत सौम्य संतान प्राप्त होगी।

 

गर्भधारण के समय गुणवान संतान प्राप्त हो इसके लिए प्रार्थना पूर्वक आहवाहन करना बताया गया है। जिसके विशेष मन्त्र में ब्रह्मा , बृहस्पति , विष्णु , चंद्र, सूर्य , वरुण और भगवान के वैध धन्वंतरि देव की भी प्रार्थना की जाती है।

 

” अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठासि धाता त्वाम

ददतु विधाता त्वाम दधातु ब्रह्मवर्चसा भव

ब्रह्मा बृहस्पर्तिविष्णुः सोमः सूर्यस्तथा अश्विनौ

भगोअथ मित्रावरुणौ वीरं ददतु में सुतं ।

 

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गर्भ  की उत्पति के लिए  महत्वपूर्ण कारक है :-

 

  1. दोषरहित शुक्र ।
  2. शुद्ध गर्भाशय जिसे स्त्री बीज कहते है।
  3. आत्मा और मन एक साथ मिलने पर उत्पन्न भाव जिसे सत्वज कहते है। 
  4. गर्भधारण के बाद माँ जो शिशु के लिए शुद्ध भोजन करती है उससे बनने वाले विचार  को सात्म्यज कहते है।
  5. गर्भ के सम्पूर्ण विकास के लिए जरुरी आहार लेने से शरीर में बनने वाले भाव को रसज कहते है।

 

इसका सीधा अर्थ है कि स्त्री और पुरुष बीज , मन , आत्मा , सात्म्यज और रस  सभी का एक निश्चित समय और निश्चित काल में मिलान होता है। तब गर्भ ठहरता है। जब तक शरीर , इन्द्रियाँ , आत्मा और मन एक नहीं होते तब तक जीवन का निर्माण नहीं होता है।

 

इन सभी का समावेश संतान उत्पति के लिए आवश्यक है। अगर माँ बाप ही शिशु के जन्म का कारण होते , तो दुनिया में कोई भी पति पत्नी संतानहीन नहीं होते।

 

गर्भाधान संस्कार गर्भवती महिला पर उसका पति करता है। हमारे ग्रंथो में गर्भाधान के समय निम्न संकल्प लिया जाता है :-

 

अस्याः मम भार्यायाः प्रतिगर्भ संस्काराति शयद्वारास्याम 

जनिष्यमाणा सर्व गर्भणाम बीजगर्भ समुदभवेनोनिबर्हण

द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं गर्भाधानाख्यं  कर्म करिष्ये ।

 

अर्थात :- इस संस्कार से मेरी पत्नी के गर्भ से पैदा होने वाले हर गर्भ की  और हर गर्भ के बीजों से पैदा होने वाली सारी त्रुटियाँ दूर हों और श्री भगवान कि कृपा हो , इसलिए मैं गर्भाधान का कर्म कर रहा हूँ।

 

गर्भाधान का उद्देश्य गर्भ ठहरने में जो भी बाधाएँ आ रही हैं । उनका निवारण हो इसलिए किया जाता है।

 

गर्भसंस्कार में गर्भाधान के समय प्रयोग होने वाली जड़ी बूटी :-

 

गर्भसंस्कार के समय अश्वगंधा और दूर्वा इन दो जड़ी बूटियों का उपयोग होता है। अश्वगंधा से प्रजनन के सभी अंग ठीक से कार्य करे , गर्भाशय और स्त्रीबीज संवर्धन , गर्भ के लिए सारे अनुकूल भाव शरीर में हो इसका कार्य करता है।

 

दूर्वा का रस  ठंडा होता है। ये शरीर की  सारी गर्मी को कम  करता है। गर्मी के कारण माहवारी की बाधाओं को दूर करता है। दूर्वा का रस  गर्भ को स्वस्थ बनाता है।

 

जिस महिला की प्रकृति जैसी होती है  उसे  उसी अनुसार अश्वगंधा या दूर्वा का प्रयोग करवाया जाता है।

 

  गर्भावस्था  में  गर्भाधान की तैयारी :-

 

ऋतुकाल ( पीरियड ) के बाद  जब पत्नी स्नान करके शुद्ध हो। तब सुन्दर वस्त्र पहने , शृंगार करे। पति का मुख देखे या अपना मुख दर्पण में देखे अथवा किसी गुरु , महापुरुष या जैसी  संतान चाहती है वैसी पुरुष या स्त्री का ध्यान करे।

 

अगर हो सके तो दोनों एक महीने तक ब्रह्मचर्य का पालन करें। ये सबसे श्रेष्ठ  है।

 

  गर्भाधान में गर्भसंस्कार के समय  की तिथियां :-

 

रजोदर्शन से छठे , आठवें , दसवें , बाहरवें , चौदहवें  दिन के गर्भ में पुत्र व बाकी दिनों में पुत्री होती है। बाहरवीं और चौदहवी रातें सबसे श्रेष्ट मानी जाती है।  जिस रात्रि को संतानोतपत्ति करनी हैं वो अष्टमी , अमावस्या , पूर्णमासी , एकादशी , या त्रयोदशी न हों । श्राद्ध पक्ष और नवरात्री भी न हों । समय रात्रि का तीसरा प्रहर हो  जिसे त्रियामा ( 12 से 3 ) कहते है। उस समय आसमान बिलकुल साफ़ होना चाहिए ।

 

पति पत्नी आपस में प्रेम और प्रसन्नता का भाव रखें। अच्छे विचार के साथ अच्छे महिला या पुरुष का ध्यान करें । जिसकी आकृति या स्वभाव चाहते हैं। उसी का धयान करें जब तक प्रसव न हो।

 

  गर्भसंस्कार में गर्भधारण के समय का भोजन :-

 

पति शाम को घी में भुने चावल , दूध और घी में बनी खीर खाये। पत्नी उड़द का भोजन करे। नमक का भोजन ना करे। पेट बहुत भरा हुआ या बिलकुल खाली भी ना हो। 

 

  निष्कर्ष :-

अच्छी , गुणवान  संतान ही मनपसंद संतान होती है। वह चाहे लड़का हों या लड़की । परन्तु ये सत्य है कि प्रकृति को चलाने के लिए जितना लड़के का महत्व हैं उतना ही लड़की का भी महत्त्व है। हम  गुणवान संतान का बीज गर्भसंस्कार के माध्यम से ही बो सकते हैं ।

जैसा माता पिता का विचार , व्यवहार ,  खान पान ,  वातावरण रहेगा। वैसे ही गुणों वाली संतान का जन्म होगा। ऐसे में आज के समय में गर्भसंस्कार का महत्व बहुत बढ़ गया है।

ऐसी शोधपूर्ण जानकारियों के लिए हमारे ब्लॉग के साथ बने रहें। धन्यवाद

 

 

 

2 thoughts on “गर्भावस्था में गर्भसंस्कार विधि और उसकी आवश्यकता”

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